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[श्री महावीर वचनामृत धर्मरूपी वाहन मे नियोजित किये गये कुशिष्य दुर्वल घृतिवाले होने से भली भाँति प्रवृत्ति नहीं करते ।
इड्ढीगारविए एगे, एगेऽथ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहण ।।८।। कुशिष्यों मे से कोई ऋद्धिगारव मे, कोई रसगारव मे, तो कोई सातागारव मे निमन्न होते हैं इसी तरह कोई तो दीर्घकाल तक क्रोध को धारण करनेवाले भी होते हैं।
विवेचन-गृहस्य अपनी ऋद्धि-सम्पत्ति का अभिमान करे तो ऋद्धिगारव कहलाता है। साघु अपने भक्तमण्डल अथवा शिष्यमण्डल का अभिमान करे तो ऋद्धिगारव कहलाता है। गृहस्थ प्राप्त सुन्दर भोजन का अभिमान करे तो वह रसगारव कहलाता है और साधु प्राप्त इच्छानुसारी भिक्षा का अभिमान करेतो वह रसगारव कहलाता है। गृहस्थ अपनी सुख-सुविधा का अभिमान करे तो वह सातागारव कहलाता है और साघु 'मुझे जैसा आनन्द किसी को नही है' ऐसा अभिमान करे तो वह सातागारव कहलाता है।
भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए। थद्ध एगेऽणुसासम्मि, हेऊहिं कारणेहि य ॥६॥ कोई भिक्षाचरी मे आलस्य करता है, तो कोई अपमान से डरता है। कोई जाने योग्य घरों मे जाता नही। कुछ मिथ्याभिमान से ऐसे अकड हो जाते हैं कि किसी को वंदन करने के लिए ही तैयार नही। ऐसे हेतु और विविध कारणों के वशीभूत कुशिष्यों को मैं कैसे