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[ श्री महावीर-वचनामृत
यतना द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से, इस तरह चार प्रकार की कही गई है, जिसका वर्णन करता हूं, उसे सुनो। दबा चक्खुसा पेहे, जुगमितं च खित्तओ। कालओ जाव रोजा, उवउत्ते य भावो ॥॥
द्रव्य से यतना करना अर्थात् आख से बराबर देखना ; क्षेत्र से यतना करना अर्थात् आगे की एक धुरा जितनी भूमि का निरीक्षण करते रहना । काल से यतना करना अर्थात् जहाँ तक चलने की क्रिया चालू रहे, वहाँ तक यतना करना और भाव से यतना करना अर्थात् उस समय पूर्णरूप से सावधानी रखना।।
इढियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा ।
तम्मुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्तं रियं रिए ॥८॥ __ मुनि इन्द्रिय के अर्थ तथा पाच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग करे और ईर्यासमिति को प्रधानता देकर उसमे तन्मय हो सावधानी से चले।
विवेचन- ईयासमिति के बारे में दूसरी सूचना यह है कि चलते समय इन्द्रियों के विषय मे अर्थात् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श सम्बत्वी अनुकूल-प्रतिकूल कोई विचार नही करना। यदि मन में ऐसे विचारों का उफान आ गया तो सावधानी नही रहेगी और किसी जीव-जन्तु के पैरों के नीचे आ जाने से उसकी विराधना होगी।
स्वाध्याय अर्थात् पठन-पाठन से सम्बन्चित प्रवृत्ति । जिन-शासन में स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा