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________________ १७६ ] [ श्री महावीर वचनामृत अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवो । अज्झप्पज्झाण जोगेहिं, पसत्थदमसासणी ॥३॥ [ उत्त० अ० १६, गा० ६४ ] साघु कर्म आने के सभी अप्रगस्त द्वारों को सब ओर से बद कर अनास्रवी हो जाता है और अध्यात्म तथा ध्यान-योग से आत्मा का प्रशस्त दमन एवं अनुशासन करनेवाला होता है । अप्पभासी मियासणे । अर्तितिणे अचवले, हविञ्ज उअरे दंते, थोवं लद्धुं न खिंस ||४|| [ दश० भ० ८, गा० २६ ] साधु क्रोध से वड़बड़ाहट न करनेवाला, स्थिर-बुद्धि, तोलकर बोलनेवाला, परिमित आहारकर्ता तथा भूख का दमन करनेवाला होता है । वह थोडा आहार मिलने पर कभी क्रोध नही करता । जाइ सद्धाइ निक्खतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरियसम्मए ||५|| [ दश० अ० ८, गा० ६१ ] ( सावु ने ) जिस अनन्य श्रद्धा से गृहत्याग कर उत्तम चारित्र - पद अगीकार किया हो, उसी श्रद्धा से महापुरुषो द्वारा प्रदर्शित कल्याणमार्ग का अनुसरण करना चाहिये । देवलोगसमाणो य, परियाओ रयाणं अरयाणं च, महेसिणं । महानरयसारिस ||६ ॥ [ दश० चू० १, गा० १० ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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