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सत्य ]
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प्रज्ञावान् साधक चार प्रकार की भाषाओ के स्वरूप को जानकर उनमे से दो प्रकार की भाषा द्वारा विनय ( आचार ) सीखे ; और दो प्रकार की भाषाओ का कदापि उपयोग न करे।
विवेचन-भाषा के चार प्रकार है :-(१) सत्य, (२) असत्य, (३) सत्यासत्य अर्थात् मिश्र और (४) असत्यामृषा अर्थात् व्यावहारिक। इनमें से प्रथम और अन्तिम इन दो भाषाओ का साधक 'विनयपूर्वक व्यवहार करे और असत्य तथा मिश्र भाषा का सर्वथा परित्याग करे।
जा य सच्चा अवत्तव्या, सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धहिंऽनाइन्ना, न तं भासिज्ज पन्नवं ॥८॥
[दश० म०७, गा० २] जो भाषा सत्य होने पर भी बोलने योग्य न हो, जो भाषा सत्य और असत्य के मिश्रणवाली हो, जो भाषा असत्य हो और जिस भाषा का तीर्थङ्करो ने निषेध किया हो-ऐसी भाषा का प्रयोग प्रज्ञावान् साधक को नही करना चाहिये।
विवेचन-ऊपर की सातवी गाथा मे सत्य और व्यावहारिक भाषा बोलने के सम्बन्ध में कहा गया है। उसमे भी बहुत कुछ बात -समझने योग्य है। उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत गाथा मे किया गया है। भाषा सत्य हो किन्तु बोलने जैसी न हो, अर्थात् जिसके बोलने से हिंसा अथवा अन्य किसी की हानि होने जैसी स्थिति हो तो वैसी भाषा कभी नही बोलनी चाहिये। उदाहरण के लिये-बाजार में -जाते हुए यदि कोई कसाई-वधिक पूछे, "मेरी गाय को देखा है ?"