SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६] [श्री महावीर-वचनामृत तात्पर्य यह है कि जो समय चला गया, वह सदा के लिये हाथ से निकल गया, वह पुनः आनेवाला नही है। ऐसी अवस्था मे बुद्धिमान मनुष्यो का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि समय का वन सके उतना सदुपयोग कर लेना चाहिये । जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके समय का दुरुपयोग हुआ, ऐसा समझना चाहिए, क्योकि उससे नया कर्मवन्चन होता है, जिसके फलस्वरूप उसे अनेकविध दुःख सहन करने पडते हैं । जो मनुष्य धर्म का आचरण करता है उसके समय का सदुपयोग हुआ मानना चाहिये, क्योकि उससे नये कर्म नही बंचते और जो बंधे हुए हैं उनका भी क्षय हो जाता है। परिणामस्वरूप उसकी भव-परम्परा का अन्त आ जाता है और वह सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है। धम्मो मंगलमुक्टिं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥६॥ [दश० अ० १, गा० १] धर्म उत्कृष्ट मगल है। वह अहिंसा, सयम और तपरूप है। जिसके मन में सदा ऐसा धर्म है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं। विवेचन-इस जगत् मे मनुष्य मात्र सदा सर्वदा मंगल की कामना किया करते है। किन्तु उनको यह स्मरण नही होता कि उत्कृष्ट मगल तो धर्म ही है, क्योंकि धर्म से दुरित (पाप) दूर होते हैं और इच्छित फल की प्राप्ति होती है। यहाँ धर्म शब्द से अहिंसा, सयम और तप की त्रिपुटी समझना चाहिये। जहाँ किसी भी प्रकार की हिंसा होती है वहाँ धर्म नहीं रहता। जहाँ किसी भी
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy