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________________ ११४] [श्री महावीर-वचनामृत एको हु धम्मो नरदेव ताणं, न विजई अन्नमिहेह किंचि ॥ २ ॥ [उत्त० अ० १४, गा० ४०] हे राजन् ! इन मनोहर एव कमनीय ऐसे कामभोगों को छोडकर एक दिन तुझे मरना ही है। उस समय हे नरदेव ! एकमात्र धर्म ही तेरा चरणावलम्बन सिद्ध होगा। धर्म के अतिरिक्त इस ससार मे ऐसी कोई वस्तु विद्यमान नही कि जो तेरे उपयोग मे आए। विवेचन -यहाँ राजा को सम्बोधित किया है, किन्तु वात सव के लिये समान रूप से उपयोगी है। जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वडई । जाबिंदिया न हायंति, ताव धम्म समाचरे ॥३॥ [दशः अ०८, गा० ३६] जब तक जरा पीडित न करे, व्याधि मे वृद्धि न हो और इन्द्रियाँ वलहीन न हो जाएं तबतक की अवधि मे उत्तम प्रकार से धर्माचरण कर लेना चाहिये। विवेचन-प्रायः मनुष्य ऐसा समझना है कि जब मैं वड़ा हो जाऊंगा, वृद्ध बनूंगा, तब धर्माचरण करूंगा। अभी तो आमोद-प्रमोद के दिन है। किन्तु उसका यह समझना भ्रान्ति है । देह क्षणभगुर है । यह कब नष्ट हो जायगा कहा नही जा सकता। यदि मान लिया जाय कि आयुष्य की डोरी लम्बी है, और वह वृद्ध होनेवाला है,
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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