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साधनाक्रम
[१०७ जया निम्बिदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । तया चयइ संजोगं, समितर-बाहिरं ॥७॥
[ दश० अ० ४, गा० १७] जब साधक के मन में स्वर्गीय तथा मानुपिक भोगो के प्रति निर्वेद -वैराग्य उत्पन्न होता है, तब आभ्यन्तर और बाह्य संयोगो को वह छोड देता है।
विवेचन :-यहाँ आभ्यन्तर सयोग से कषाय और बाह्य सयोग से धन, धान्यादि का परिग्रह तथा कुटुम्बिजनो का सम्बन्ध ऐसा अर्थ लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि साधक मे जब स्वर्गीय अथवा मानुषिक भोग की इच्छा नही रहती, तब कषाय करने का कोई कारण नही रहता और धन-धान्यादि तथा कुटुम्बिजनो के प्रति रहे ममत्व मे अपने आप ही कमी आ जाती है।
जया चयइ संजोगं सभितर-बाहिरं। तया मुण्डे भवित्ताणं, पच्चयइ अणगारियं ॥८॥
[दश० भ० ४, गा० १८] जब साचक आभ्यन्तर और बाह्य सयोगो को छोड देता है, तब सिर मुंडवाकर अणगार धर्म मे प्रवजित होता है।
विवेचन :-अणगार धर्म अर्थात् श्रमण-धर्म, साधु-धर्म । प्रवजित होना अर्थात् दीक्षित होना। निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय मे साधु-धर्म की दीक्षा ग्रहण करते समय सिर मुंडवाना अत्यावश्यक होता है। बौद्ध-श्रमण भी दीक्षा ग्रहण करते समय सिर का मुण्डन कराते है।