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[श्री महावीर-वचनामृत प्रकार का कर्मबन्धन किया है, ओर कर्म के फल भोगे बिना किसी को मुक्ति नही मिलती।
जया गई बहुविहं, सबजीवाण जाणइ। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ ॥५॥
[दश० अ० ४, गा० १५] जब साधक सर्वजीवो की अनेकविध गतियों को जानता है, तब पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को जानता है।
विवेचन-जव साधक जीवकी अनेकविध गति का कारण सोचता है तब उसके सामने पुण्य-पाप का सिद्धान्त आ जाता है। जैसे कि पुण्य करनेवालों की सद्गति होती है और पाप करनेवालो की दुर्गति । पीछे अधिक विचार करने पर पुण्य और पाप एक प्रकार का कर्मबन्धन है, यह बात उनके समझने मे आती है , और जहाँ कर्मवन्चन है, वहाँ उसमे से छूटने की कोई प्रक्रिया भी अवश्य होनी चाहिये, ऐसा अनुमान होते ही मोक्ष का निर्णय हो जाता है ।
जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निविंदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे ॥६॥
[दश० अ० ४, गा० १६ ] जब साधक पुण्य, पाप, बन्च और मोक्ष का स्वरूप अच्छी तरह जान लेता है, तब उसके मन मे स्वर्गीय तथा मानुपिक दोनों प्रकार के भोग सारहीन है, यह वात उसके ध्यान मे आ जाती है और उसके प्रति निर्वेद-वैराग्य उत्पन्न होता है।