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धारा :६:
साधना-क्रम
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥१॥
[दश० अ० ४, गा० ११] साधक सद्गुरु का उपदेश श्रवण करने से कल्याण का-आत्महित का मार्ग जान सकता है, ठीक वैसे ही सद्गुरु का उपदेश श्रवण करने से पाप का-अहित का मार्ग भी जान सकता है । जब इस प्रकार वह हित और अहित दोनों का मार्ग जान ले, तभी जो मार्ग हितकर हो उसका आचरण करे।
जो जीवे वि न जाणेइ, अजीवे वि न जाणइ । जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ सजमं ॥२॥
[ दश० अ० ४, गाः १२] जो जीवों को नही जानता है, वह अजीवों को भी नही जानता है। इस प्रकार जीव और अजीव दोनों को भी नही जाननेवाला भला सयम को किस प्रकार जानेगा ?
विवेचन-साधक को सर्वप्रथम जीवो का आत्मतत्त्व-का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये, अर्थात् उसके लक्षणादि से परिचित होना