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[श्री महावीर-वचनामृत भ्रष्ट हो गया हो। कुदर्शनी का अर्थ है मिथ्यादर्शन की मान्यता रखनेवाला । इन-चार अगो मे से आरम्भ के दो अंग श्रद्धा को पुष्ट करनेवाले हैं जबकि शेष दो अग श्रद्धा का सरक्षण करनेवाले हैं। नादसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निवाणं ।।८।।
. [उत्त० म० २८, गा० ३०] -. सम्यग् दर्शन के विना सम्यग् ज्ञान नही होता , सम्यग् ज्ञान के विना सम्यक् चारित्र के गुण नही आते , सम्यक् चारित्र के गुणों के विना सर्व कर्मों से छुटकारा नही होता , और सर्व कर्मों से छुटकारा पाये विना निर्वाण की प्राप्ति नही होती। . .
विवेचन-ज्ञान से पदार्थों को जाना जा सकता है और दर्शन से उसपर श्रद्धा होती है, इसलिये 'नाण दसण चेव' यह क्रम दिखलाया है। परन्तु जीव मात्र का मोक्षमार्ग की ओर सच्चा प्रस्थान तो सम्यग् दर्शन को-सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् ही होता है; यह वस्तु यहां स्पष्ट की गई है। जिसे सम्यग दर्शन प्राप्त हो, उसे ही सम्यग् ज्ञान होता है। इसका अर्थ यह है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति मे पूर्व जीव को जो कुछ ज्ञान रहता है, वह वास्तव मे अज्ञान ही है , क्योकि मोक्षप्राप्ति मे वह उपकारक सिद्ध नहीं होता। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के पश्चात् यही ज्ञान सम्यग बन जाता है।
जिसको सम्यग् ज्ञान हुआ हो उसको ही सम्पक्चारित की प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मनुष्य चाहे जितने अंचे चरिय का पालन करता हो, किन्तु यह सम्या जान में