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[श्री महावीरवचनामृत हे पुरुष! तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर । बाहरी शत्रुओं के साथ भला किस लिये लड़ता है ? आत्मा के द्वारा ही आत्मा को जीतने मे सच्चा सुख मिलता है।
पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सन्नं अप्पे जिए जियं ॥१०॥
[उत्त० भ० ६, गा० ३६] पाँच इन्द्रियो, क्रोध, मान, माया और लोभादि की वृत्तियां दुर्जय हैं, ठीक वैसे ही आत्मा को जीतना बहुत कठिन है। जिसने आत्मा को जीत लिया उसने सबको जीत लिया। न तं अरी कंठछित्ता करेइ,
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते,
पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥११॥
[उत्त० अ० २०, गा०४८] दुराचार मे प्रवृत्त आत्मा हमारा जितना अनिष्ट करती है, उतना अनिष्ट तो गला काटने वाला कट्टर शत्रु भी नहीं करता। ऐसा निर्दयी मनुष्य मृत्यु के समय अवश्य अपने दुराचार को पहचानेगा और फिर पश्चात्ताप करेगा। जो पचहत्ताण महन्बयाई,
सम्मं च नो फासयई पमाया ।