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________________ दुर्लभ संयोग] [७६ से लोग ( उसका अनुसरण नहीं करते और दुराचारी स्वच्छन्दी जीवन बिताकर ) भ्रष्ट बन जाते है। सुई च लडु सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । वहवे रोयमाणा वि, णो य णं पडिचजई ॥ १० ॥ कदाचित् धर्मशास्त्रों के वचन सुने हो और उन पर श्रद्धा भी जम गई हो, पर सयम-मार्ग मे वीर्यस्फुरण होना अर्थात् प्रवृत्ति करना अत्यन्त कठिन है। बहुत से लोग श्रद्धासम्पन्न होते हुए भी सयममार्ग मे प्रवृत्त नही होते। माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्म सोच्च सद्दहे । तवस्सी चीरियं लद्ध, संवुडे निणे रयं ॥ ११ ॥ जो जीव मनुष्य-जीवन प्राप्त करके धर्मशास्त्र के वचन सुनता है, उस पर श्रद्धा रखता है, और सयम-मार्ग मे प्रवृत्त होता है, वह तपस्वी और सवृत्त ( सवरवाला ) बनकर अपने (बद्ध और बद्धयमान) सभी कर्मों का क्षय कर देता है, अर्थात् मुक्ति प्राप्त करता है। सोही उज्जुभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निवाणं परमं जाइ, घयसित्तेव पावए ॥ १२ ॥ सरलता से युक्त आत्मा की शुद्धि होती है और ऐसी आत्मा मे ही धर्म स्थिर रह सकता है। घृत से सीची हुई अग्नि के समान वह देदीप्यमान होकर परम निर्वाण ( मुक्ति ) को प्राप्त करता है। विगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए। पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्डूं पक्कमई दिसं ॥ १३ ॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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