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धारा :६:
दुर्लभ संयोग चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥ इस संसार मे प्राणी मात्र को मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम की प्रवृत्ति जैसे चार उत्तम अङ्गों की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लम है।
समावण्णाण संसारे, णाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा णाणाविहा कट्ट, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥ संसार मे भिन्न-भिन्न गोत्र और जाति मे पैदा हुए जीव विविध कर्म करके ससार मे भिन्न-भिन्न स्वरूप मे उत्पन्न होते हैं।
एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं, आहाकम्मेहिं गच्छई ॥३॥ अपने कर्म के अनुसार यह जीव किसी समय देवलोक मे, किसी समय नरक मे तो किसी समय असुरकाय मे ( भुवनपति इत्यादि मे) उत्पन्न होता है।