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कर्म के प्रकार]
[६३ के कारण आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यरूप लब्धि का पूर्णरूपेण विकास नही होता। ___ मूलभूत स्वरूप मे जगत् के सभी जीव समान होने पर भी उनकी अवस्थाओ मे जो विचित्रता और विभिन्नता दीख पड़ती है, उसके मूल मे कर्म के उक्त प्रकार ही हैं। नाणावरणं पंचविहं, सुयं आभिणियोहियं ।
ओहिनाणं च तइयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार के है :-(१) श्रुतज्ञानावरणीय, (२) मतिज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनःपर्यायज्ञानावरणीय तथा (५) केवलज्ञानावरणीय ।
विवेचन-ज्ञान के पांच प्रकार हैं :--(१) आभिनिबोधिक अथवा मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान और (५) केवलज्ञान । इन पांचो ज्ञानो को अवरुद्ध करनेवाले अलग-अलग कर्म होते हैं, इसलिये ज्ञानावरणीय कर्म के पांच प्रकार माने गये हैं । यहाँ श्रुतज्ञानावरणीय कर्म प्रथम और मतिज्ञानावरणीय कर्म दूसरा कहा है, किन्तु ज्ञान के क्रमानुसार मतिज्ञानावरणीय पहला
और श्रुतज्ञानावरणीय दूसरा समझना चाहिये। निदा तहेव पयला, निदानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो अ थीणगिद्धी उ, पंचमा होई नायबा ॥५॥ चक्खुमचक्खू ओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे। एवं तु . नवविगप्पं, नायव्वं दसगावरणं ॥६॥