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संसारी जीवों का स्वरूप]
वनस्पति ही जिसकी काया वह है वनस्पतिकायिक जीव कहलाता है। इन तीनो प्रकार के जीवो का समावेश स्थावर मे होता है।
दुविहा पुढवीजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥३॥
[ उत्त० अ० ३६, गा० ७० ] पृथ्वीकायिक जीव के दो प्रकार है :--सूक्ष्म और बादर । ठीक वैसे ही इनमे से प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो और प्रकार होते है।
विवेचन-यहाँ सूक्ष्म शब्द से ऐसे सूक्ष्म जीवो का निर्देश किया है जो किन्ही भी सयोगो मे दृष्टिगोचर नही होते, इतना ही नही बल्कि उन पर शस्त्रादि किसी अन्य चीज के प्रयोग का कोई असर नही होता। ऐसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समस्त लोक मे व्याप्त है। बादर शब्द स्थूलतावाचक है। किन्तु बादर पृथ्वीकायिक एक जीव का शरीर हमारी दृष्टि का विषय नही बन सकता। हम पृथ्वीकाय का जो शरीर देखते है, वह असख्य जीवो के असख्य शरीर का एक पिण्ड होता है, वह समुदित अवस्था मे देखा जा सकता है, अतः उसे बादर कहा गया है।
जीव विग्रह गति द्वारा नये जन्मस्थान पर पहुंचने पर जीवन वारण करने के लिये आवश्यक ऐसे पुद्गल एकत्र करने लगता है, जिसे आहार की क्रिया कहते है। उसी आहार मे से वह गरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन की रचना करता है। शास्त्रीय परिभाषा मे इन छह वस्तुओ को पर्याप्ति कहा जाता है।