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________________ २४] [श्री महावीर-वचनामृत अरूविणो जीवघणा, नाण-दंसण-सण्णिया। अउलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥११॥ [उत्त० म०३६, गा०६६] सिद्धो के वे जीव-सिद्ध भगवन्त अरूपी है, घन हैं ( उनके जीव-प्रदेशो के वीच कोई खोखलापन नही है), ज्ञान और दर्शन से युक्त हैं , तथा अपरिमित सुख-प्राप्त है। उनको उपमा देने के लिए दूसरा कोई शब्द ही नही है । अत्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नस्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥१२॥ [उत्तः अ० २३, गा० ८१] लोक के अग्नभाग पर एक निश्चल स्थान है, जहाँ जरा, मृत्यु, रोग और दुःख नहीं है , परन्तु वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है। निबाणं ति अवाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं मित्रं अणावाहं, जं चरन्ति महेसिणो ॥१३।। [ उत्त० अ० २३, गाः ८२] उस स्थान के निर्वाण, अवाव, सिद्धि, लोकाय, क्षेम, गिव और अनावाचादि अनेक नाम प्रचलित है। उसे महपिंगण ही प्राप्त करते हैं। विवेचन-अबाच अर्थात् पोहा-रहित । अनावाच अर्थात् उसके स्वाभाविक सुख मे अन्तराय-रहित ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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