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________________ तिर्यंच मनुष्य और जोतषी । मध्य लोकमें कहवाया ॥ वरणन इनका सुत्रमें देखो । यहां गाने में नहीं आया || द्विप समुद्र असंख्य २ है | सूत्रों में फरमाते हैं ॥ च ॥ २॥ जंबूद्विप है सबके अंदर | लाख जोजन के मांही है || कर्मा भूमी वसे जुगलिया । क्षेत्र नव सुखदाई है || मेरु पर्वत सबसे ऊंचा । वन चार बीटचाइ है ॥ पडंग वनमें सिला चार है । मौछब करे सुर आइहै ॥ चन्द्र सूर्य और सभी जोतषी । रह्या चक्र लगाई है || सोला हजार सुर उठानेवाले | चन्द्र सूर्य के तां है || रात दिन जो करे परियटना । शुभा शुभ वरताते हैं | उदे ॥ ३ ॥ स्वर्ग छब्बीस है उंचा लोकमें । बारह कल्प कहवाना है दश इन्द्र तक सभी रचना | आगे अहेमेन्द्र देवना है ॥ चउरासीलाख सताणु सहश्र । उपर तेवीस जो जाना है "स्वार्थ सिद्ध है सबसे ऊंचा । पुण्यवंतो का ठिकाना है | }
SR No.010456
Book TitleJain Subodh Ratnavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Maharaj
PublisherPannalal Jamnalal Ramlal Kimti Haidrabad
Publication Year1913
Total Pages221
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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