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________________ (१४५) महाराज सकेंद्र और चमर इन्द्रांजी। फिर हुवा भारत भरपूर मनुष्यका वृन्द वृन्दांजी। जब चेडा महाराज दिलमें वह घबराया ।। महाराज जवरसे जोर न चलताजी।। परम ।। ३॥ जब भवनपति सुरभवनके अंदर लाया। महाराज करी अणसण सुख पायाजी । ले गया देवता हार, हाथी अनिमें समायाजी ।। यह माया जालका झगडा जगके मांही । महाराज गिणे नहीं कोई सगाइजी । बाप बेटा भाइ परिवार और सब लोग लुगाइजी॥ श्रीजवाहरलालजी महाराजके चरणां मांही।। महाराज हीरालाल ध्यान लगाताजी ॥ परम ॥४॥ ॥ श्रावक वर्ण नाग नतवाकी सझाय ।। आऊखो टूटाने सांधोको नहीं रे ।। यह देशी ।।
SR No.010456
Book TitleJain Subodh Ratnavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Maharaj
PublisherPannalal Jamnalal Ramlal Kimti Haidrabad
Publication Year1913
Total Pages221
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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