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शत पञ्च धनुप उन्नत लसाय, पदमासनयुत वर ध्यान लाय। शिर तीनछत्र शोभित विशाल, त्रय पादपीठ मणिजडित लाल ॥१८॥ भामण्डलकी छवि कौन गाय, पुनि चॅबर दरत चौसठि लखाय । जय दुन्दुभिरव अद्भत सुनाय, जय पुष्पवृष्टि गन्धोदकाय ॥१६॥ जय तरु अशोक शोभा भलेय, मंगल विभूति राजत अमेय । घट तूप छजै मणिमाल पाय, घट धूम्र धूम दिग सर्व छाय ॥२०॥ जय केतुपंक्ति सोहै महान, गन्धर्व देव गण करत गान । सुर जनम लेत लखि अवधिपाय, तिहं थान प्रथम पूजन कराय ॥२१॥ जिन गेह तणो वरणन अपार, हम तुच्छ बुद्धि किम लहत पार । जय देव जिनेसुर जगत भूप, नमि 'नेम' मंगै निज देहु रूप ॥२२॥ दोहा-तीनलोक में सासते, श्रीजिन भवन विचार ।
मनवचतन करि शुद्धता, पूजों अरघ उतार । ॐ ही तीन लोक सम्बन्धी आठ कोहि छप्पन लाख सत्यानवै हजारचारसौइक्यासी भकृत्रिमजिनचंत्यालयभ्योऽय निर्वपामीति स्वाहा।। तिहुँजग भीतर श्रीजिनमंदिर,वनेअकीर्तम अति सुखदाय। नरसुरखग कर वन्दनीक, जे तिनको भविजन पाठ कराय॥ धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय। चक्री सुर खग इन्द्र होयके, करम नाश शिवपुर सुख थाय॥
इत्याशीर्वादः ।