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________________ [ ४४ ] परघात होत है, क्रोध घात निज टालें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय व दनमें । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुंचे नरक - सदनमें || ज्ञानी० ||२|| कर दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथ व्यापी ॥ ज्ञानी० ॥ ३॥ शिथिलाचार निरुयम रहना सहना बहु दुख भ्राता । द्यानत बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता ॥ ज्ञानी० ॥४॥ ( ८३ ) कारज एक ब्रह्महीसेती || टेक || अंग संग नहिं बहिरभूत सब, धन दारा सामग्री तेती ॥ कारज० ||१|| सोल सुरंग नव विकमें दुख, सुखित सातमें ततका वेति । जा शिवकारन मुनि गन ध्यावैं, सो तेरे घट आनन्दखेती || कारज० ॥ ||२|| दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान विन किरिया केती । पंच दरब तोतें नित न्यारे, न्यारी राग दोष विधि जेती ॥ कारज० ॥३॥ तू अविनाशी जगपरकासी, द्यानत भासी सुकलावेती । तजौ लाल ! मनके विकलप सब, अनुभव 1
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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