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________________ { ४३ । श्रीजिन० ॥१॥ कोटि जनम पातक कटैं, प्रभुनाम लेत इक बार । ऋद्धि सिद्धि चरननसों लागै, आनन्द होत अपार ।। श्रीजिन० ॥२॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करें अवतार । नाम बिना धिक मानवको भव, जल बल व है छार ।। श्री. जिन० ॥३॥ नाम समान आन नहिं जग सब, कहत पुकार पुकार । द्यानत नाम तिहूं पन जपि लै, सुरगमुकति दातार ॥४॥ (८१) देखे सुखी सम्यकवान ॥टेक॥ सुख दुखको दुखरूप विचार, धारै अनुभव ज्ञान ॥ देखे० ॥१॥ नरक सातमेंके दुख भोगैं, इन्द्र लखें तिनमान । भीख मांगकै उदर भरै न करें चक्रीको ध्यान ॥ ॥ देखे ॥२॥ तीर्थकर पदको नहिं चावें जपि उदय अप्रमान । कुष्ट आदि बहु व्याधि दहत न, चहत मकरध्वज थान ।। देखे०॥३॥ आधि व्याधि निरबाध अनाकुल, चेतन जोति पुमान । धानत मगन सदा तिहिमाहीं, नाहीं खेद निदान ॥४॥ ज्ञानी जीव दया नित पालें ॥टेक॥ आरम्भत
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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