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________________ [ ३५ ] परिगृह विस्तारै, पांच पापकर नरक सिधारै ॥ जियको ० ॥३॥ जोगी जती गृही बनवासी, वैरागी दरवेश सन्यासी | अजस खान जसकी नहि रेखा, द्यानत जिनके लाभ विशेखा || जियको ० ||४|| ( ६६ ) रे मन ! भज भज दीनदयाल ॥ टेक ॥ जाके नाम लेत इक छिनमैं, करें कोट अघजाय ॥ रे मन ॥१॥ परमब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल || रे मन० ||२|| इन्द्र फनिन्द चक्रधर गावैं, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परगासै, नाशै मिथ्याजाल | रे मन० ॥३॥ जाके नाम समान नहीं कछु, करध मध्य पताल | सोई नाम जपो नित द्यानत, छांड़ि विषय विकराल || रे मन० ||४|| ( ६७ ) तुम प्रभु कहियत दीनदयाल || टेक ॥ आपन जाय मुकत मैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुम० ॥ १ ॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल | तुमतो हमको कछू देत नहि, हमरो कौन हवाल || तुम० || २ || बुरे भले हम भगत तिहारे,
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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