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________________ [ २७ ] ॥ भवि० ॥२॥ दुख दालिद-हर अनघ-रैन, द्यानत प्रभु र्दै परम चैन ॥ भवि० ॥३॥ (५०) मगन रहु रे ! शुद्धातममें मगन रहु रे ॥टेका। राग दोष परको उतपात, निहचै शुद्ध चैतनाजात ॥ मगन० ॥१॥ विधि निषेधको खेद निवारि,आप आपमें आप निहारि ॥ मगन० ॥२॥ बंध मोक्ष विकलप करि दूर, आनन्द कन्द चिदातम सूर ॥ मगन ॥३॥ दरसन ज्ञान चरन समुदाय, द्यानत ये ही मोक्ष उपाय ॥ मगन० ॥४॥ आतम जानो रे भाई ! ॥टेक॥ जैसी उज्जल आरसी रे, तैसी आतम जोत । काया-कर-मनसौं जुदी रे, सबको करै उदोत ॥ आतम०॥शाशयन दशा जागृत दशा रे, दोनों विकलप रूप। निरविकलप शुद्धातमा रे, चिदानन्द चिद्र प ।। आतमः ॥२॥ तन वचसेती भिन्न कर रे, मनसों निज लौं लाय। आप आप जब अनुभवै रे. तहां न मन वच काय ॥ आतम० ॥३॥ छहौं दरब नव तत्वतैरे, न्यारो आतम राम । द्यानत जे अनुभव करें
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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