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________________ [ २६ ] हैं तोलौं, ध्यान शब्द सुनि धारौ । जरा न आवै गद न सतावै, संजम परउपकारौ ।। प्राणी ॥२॥ देह शिथिल मति विकल न तौलौं, तप गहि तत्त्व विचारौ । अन्तसमाधिपोत चढ़ि अपनो, द्यानत आतम तारौ ॥ प्राणी० ॥४॥ (४८) राग सोरठ। नेमि नवल देखें चल री । लहैं मनुष भवको कलरी ॥टेका। देखनि जात जात दुख तिनको भान जथा तम दल दल री। जिन उर नाम वसत है जिनको, तिनको भय नहिं जल थल री ॥ नेमि० ॥१॥ प्रभुके रूप अनूपम ऊपर, कोट काम कीजे बल री । समोसरनकी अद्भुत शोभा नाचत शक्र सची रल री । नेमि० ॥२॥ भोर उठत पूजत पद प्रभुके, पातक भजत सकल टल री। द्यानत सरन गही मन ! ताकी, जैहैं भवबंधन गल री ॥३॥ (४६) सचि ! पूजौ मन वच श्रीजिनेन्द्र, चित्तचकोर सुखकरन इंद ॥टेका। कुमति कुमुदिनी हरनसूर, विधनसघन वनदहन भूर ॥ भवि० ॥१॥ पाप उ-, रग प्रभु नाम मोर, मोह महा-तम दलन- भोर ।
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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