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________________ [ १२ ] कीरतवंत मृतक जीवत हैं, अपजसवंत जिया न जिया । जिनके० ॥३। धाम मांहि कछु दाम न आये, बहु व्योपार किया न किया। द्यानत एक विवेक किये विन, दान अनेक दिया न दिया ।। (२२) बिपतिमें धर धीर, रे नर ! विपतिमें धर धीर ॥टेक॥ सम्पदा ज्यों आपदा रे ! विनश जै है वीर ॥रे नर० ॥१॥ धूप छाया घटत बढ़ ज्यों त्योंहि सुख दुख पीर ॥ रे नर० ॥२॥ दोष द्यानत देय किसको, तोरि करम-जंजोर ॥ रे नर० ॥३॥ (२३) गुरु समान दाता नहिं कोई ॥टेका भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै खोई ॥ गुरु० :शा मेघ समान सबनपै वरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई । नरक पशुगति आगमांहितें. सुरंग मुकत सुख थापै सोई ॥ गुरू० ॥२॥ तीनलोक मन्दिरमें जानौ, दीपकमम परकाशक लोई। दी. पतलें अंधियारा भयो है अन्तर बहिर विमल है जोई ॥ गुरु० ॥३॥ तारन तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई। धानत निशि दिन
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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