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________________ [ १० ] ॥ २॥ धन्या वापी पखो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागरतें ताखो, राजभोगक मुकत बरी जी ।। मेरी बेर० ॥३॥ सांप हुयो फूलनकी माला, सोमापर तुम दया धरी जी । धानत मैं कछु जांचत नाही. कर वैराग्य दशा हमरी जो ॥ मेरी वेर०॥ (१८) जिनके हिरदै भगवान बसैं, तिन आनका ध्यान किया न किया ॥ टेक ॥ चक्री एक मिलाप भयेतें, और नर न मिलिया मिलिया। जि० ॥१॥ इक चिन्तामणि वांछितदायक, और नग न गहिया गहिया। पारस एक कनी कर आवे, और धन न लहिया लहिया । जिनके० ॥२॥ एक भान दश दिशि उजियारा, और ग्रह न उदिया उदिया। एक कल्पतरु सब सुख दाता, और तरु न उगियाउगिया | जिनके० ॥३॥ एक अभय महादान देय कें और सुदान दिया न दिया । द्यानत ज्ञानसुधा रस चाख्यो, अम्रत और पिया न पिया ॥४॥ (१६) राग परज। माई ! आज आनंद कछु कहे न बनै ॥टेक।।
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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