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________________ ( ४७ ) १७ ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, वृथा क्यों खोवत हो ॥ टेक ॥ कठिन कठिनकर नरभव पाई, तुम लेखी आसान । धर्म विसारि विषयमें राचौ, मानी न गुरुकी आन ॥ वृथा० ॥१॥ चक्री एक मतंगज पायो, तापर ईधन ढोयो । बिना विवेक बिना मतिहीका, पाय सुधा पग धोयो ॥ वृथा० ॥२॥ काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । वायस देखि उदधिमें फैक्यो, फिर पीछे पछताय ॥ वृथा ॥३॥ सात विसन आठों मद त्यागो, करना चित्त विचारो । तीन रतन हिरदैमें धारो, आवागमन निवारो।। वृथा० ॥४॥ भूधरदास कहत भविजनसों, चेतन अब तो सम्हारो। प्रभुको नाम तरन तारन जपि, कर्मफन्द निरवारो॥वृथा० ॥५॥ ८ राग-ख्याल। नैननिको वान परी, दरसनकी ॥ टेक॥ जिनमुखचन्द चकोर चित्त मुझ, ऐसी प्रीति करी ।। नैन० ॥१॥ और अदेवनके चितवनको अब चित चाह टरी । ज्यों सब धूलि दयै दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ॥ नैन० ॥२॥ छवी समाय रही
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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