SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४५ ) थम शरन अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजन पाई दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर राई ॥मेरे०॥२॥ तीजे सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-काई । चौथे धर्म अहिंसा रूपी, सुरग मुकति सुखदाई ॥ मेरे० ॥३॥ दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई । भूधर सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई ॥४॥ ३ राग-ख्याल। अब नित नेमि नाम भजौ ॥ टेक ॥ सच्चा साहिब यह निज जानौ, और अदेव तजौ ॥अब० ॥१॥ चंचल चित्त चरन थिर राखो, विषयन” वरजौ ॥ अब ॥२॥ आननते गुन गाय निरन्तर, पानन पाँय जजौ ॥ अष ॥॥ भूधर जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजौ ॥४॥ ६४ राग-ख्याल वरषा । "देखनेको आई लाल मैं तो तेरे देखनेको आई" यह चाल। म्हें तो थाकी आज महिमा जानी ॥ टेक अब लों नहिं उर आनी ॥ म्हें तो० ॥१॥ काहेको भव वनमें भ्रमते, क्यों होते दुखदानी ॥ म्हेंतो ॥२॥ नामप्रताप तिरे अंजनसे, कीचकसे अभिमानी ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy