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________________ ( ४३ ) घेरा, पुत्रहूं न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ॥ आया रे० ॥३॥ भूधर समुझि अब, स्वहित करगो कब, यह गति ह है जब, तब पिछते है प्रानी ॥ आया रे० ॥४॥ ८९ राग-सोरठ। अन्तर उज्जल करना रे आई ! ॥ टेक॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौ, करनी काक न सरना है ॥ अन्तर० ॥१॥ जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक आगमअर्थ उचरना रे। विषय कषाय कीच नहिं धो-- यो, यों ही पचि पचि मरना रे ॥ अन्तर० ॥२॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों कीये पार उतरना रे। नाही है सब लोक रंजना, ऐसे वेदन वरना रे अन्तर० ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैलो भजन ये क्या तिरना रे। भूधर नीलबसनपर कैसैं, सर रंग उछरना रे ॥ अन्तर० ॥४॥ ९० राग-काफी। मन हंस ! हमारी लै शिक्षा हितकारी ॥टेक।। वीभगवानचरन पिंजरे वसि, तजि विषयनिकी गरी ॥ मन० ॥१॥ कुमति कागलीसौं मति राचो, ना वह जात तिहारो। कीजै प्रीत सुमति हंसीसौं,
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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