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________________ ( ४१ ) ८५ देखो गरवगहेली री हेली ! जादोंपतिकी नारी ॥ टेक ॥ कहां नेमि नायक निज मुखसौं, टहल कहै बड़भागी। तहाँ गुमान कियो मतिहीनी, सुनि उर दौसी लागी || देखो० ॥ १॥ जाकी चरण धूलिको तरसे, इन्द्रादिक अनुरागी ता प्रभुको तन -- वसन न पीड़, हा ! हा ! परम अभागो ॥ देखो० || २ || कोटि जनम अघभंजन जाके, नामतनी वलि जइये । श्रीहरिवंश निलक तिस सेवा, भाग्य बिना क्यों पइये || देखो० ||३ | धनि वह देश धन्य वह धरनी, जगमें तीरथ सोई । भूधरके प्रभु नेमि नवल निज, चरन धरै जहां दोई || देखो ० ||४|| ८६ रोग सोरठ | चित ! चेतनकी यह विरियां रे ॥ टेक ॥ उत्तम जनम सुनत तरूनापी, सुजत बेल फल फरियां रे । चित० ॥ १ ॥ लहि सत संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियां रे । सुहित संभाशिथिलता तजिकै, जाहैं वेली झरियां रे ॥ चित० ॥२॥ दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियां रे । ऐसी विभव बढ़ीकै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियां
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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