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________________ ( ३४ ) खलि रांधत मन्दमती जो, तुझ क्या रीस बिरानी सुन || ३ || भूधर जो कथनी सो करनी, यह बुधि है सुखदानी | ज्यों मशालची आप न देखे, सो मति करै कहानी || सुनि ||४|| ७१ राग - सोरठ | सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया ॥ टेक || टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछताया || सुनि ||१|| आपा तनक दिखाय बीज ज्यों. मूढमती ललचाया । करि मद अन्ध धर्म हर लीनौं, अन्त नरक पहुंचाया || सुनि ॥२॥ केते कंथ किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही -- सौं नहि प्रीति निवाही, वह तजि और लुभाया ॥ सुनि || ३ || भूधर छलत फिर यह सबकों, भौंदू करि जग पाया । जो इस ठगनीकों ठग बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥ सुनि ॥४॥ ७५ रा--ख्याल । जगमें जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि ॥ टेक ॥ जनम ताड़ तस्तै पढ़, फल संसारी जीव । मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ॥ जगमें ● ||१|| गिर- सिरं दिवला जोइया, चहुँ दिशि वाजे
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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