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________________ ( ३५ ) तन प्रभू का, सासोश्वास सुगंधित पद्मासन नीका | अप०॥६॥ चौनीस अतिशय शोभित पैतिस गुणवानी निज निज भाषा मांही समझन सब प्राणी ओंजय०॥७॥ मान अनन्ता दर्शन सुख वीर-जनंता लोकालोक यथारथ जानत भगव ता ओं जय० ॥८॥ चौंसटि इन्द्र सहित इन्द्राणी देवी अरु देवा नाचै गावं अद्भुन सुर सारे सेवा ओं जय० ॥६ ।। नाटक निरख भविक जन मनमें हम भावें ये जड़ पुद्गल तन रचना तज अात्म ध्यावे । ओं जय० ॥१०॥ या महिमा को देख भविक जन जनम सुफल माने, धन सुर धन सुरललना जिन भक्ति ठाने ।। आँ० जय० ॥११॥ वीतराग जिनवर की आरति रुचि सों जो गावै, अमरदास मनवाञ्छित निश्चै फल पावै । भों जय० १२॥ ( श्रारती दूसरी) जय जय जिन देवा जय श्री जिन देवा खेवा पार लगादो करूं चरन सेवा ।। टेक ।। बंदो श्री अरहन्त परम गुरु परम दयाघारी प्रभू परम दयाधारी, परमात्म पुरुषोतम जग जन हितकारी जय । जय०॥१॥ प्रभू भव जल पतित उधारन चरण शरण थारी प्रभु चरण शरण थारी सद्वक्ता
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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