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________________ ( ३४ ) करके दाया तुमको कुछभी नही अशक्य विपुल वलधारी, लखि निज शरणागत हरो विपती हमारी ।।३।। ज्यों मात पिता नही शिशके दोष निहारे, पाले सप्रेम अरु सर्व आपदा टाले, तुम विश्व पिता ज्योंही हम निश्चय धारे, या से शरणागत हो के विनय उचारे, जन नाथुराम यह जाचत वारम्बारी । लखि निजशरणत हरो विपती हमारी ॥४॥ (आरती) जय जिनवर देवा प्रभ जय जिन वर देवा, प्रारती तुमरी तारों दीजे प्रभु नित सेवा ॐ जय ॐ जय जिन वर देवा ॥ टेक ।। कनक सिंहासन मनिमय ऊपर राजै, चौंसठ चमर ढरै सित शोभा अती छाजे ॐ जय ० ॥१॥ तीन छत्र सिर ऊपर सोहै झलर में मोती दिपै महाभामंडल कोटिक रवि जोती ॐ जय ॐ जय० ॥ २॥ फूल पत्र फल संजुन तरु अशोक छाया पाच वरण पुष्पांजलि वरषा झड़ लाया ॐ जय० ॥३॥ दिव्य वचन सब भाषा गर्मित, शिव मग संकेत दुन्दुभि ध्वनी नभ वाजत मोदन मन हेतु ॐ जय० ॥४॥ इन अष्टप्रातिहारज संयुत प्रभुजी अति से।हैं सुर नर मुनी भविजन का निरखत ॐ जय ० ॥ ५॥ सहस एक अठ लक्षण संजुत शोभित
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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