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________________ ( १४ ) धार, दुकदो सहार, तारो तारो म्हारी नैय्या ॥ टेक ॥ परमाद चोर, कियो हम पै जोर, भवसिंधु पोत, दियो मंझ में बोर, तुम सम न और तारन तर नैय्या । प्रभु तार तार० ॥ १ ॥ मोहि || मोहि दंड२ दियो दुख प्रचंड, कर खंड २ चहु गति में भंड, तुम हो तरंड, काढ़ो काढ़ो गहि वहियां । प्रभु० || २ || दृग सुखदास, तेरो उदास, मेरी काट फांस, हरो भव को वास, हम करत ग्रास, तुम हो जग उवरैय्या | प्रभु० || ३ ॥ १५ ( दादरा थयेटर ) श्रवार मोरे स्वामी भव दधि से कर मुझ को पार ॥ टेक ॥ चहुं गति में रुलता फिरा मोरे स्वामी, दुखड़े सहे हैं अपार अपार, मोरे स्वामी । भव दधि० ॥ १ ॥ मिथ्या अंधेरा, मगर मोह ने घेरा, कर्मों के विकट पहार, पहार मोरे स्वामी भवधि से कर मुझ को पार ॥ २ ॥ सातों विषय क्रोध मद लोभ माया, प्राये लुटेरे दहार दहार मोरे स्वामी । भवदधि से० ॥ ३ ॥ सम्पति की बेड़ी भँवर में पड़ी हैं, वेगी से लेना उभार । उभार मेरे स्वामी भवद० || ४ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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