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________________ [४५ ] ६६-लावनी राग जंगला गारा । क्यों परमादी हुवा वे तुझक वीता काल अनंता ॥ टेक ।। आयो निकल निगोद सेरे भटको थावर योनि । मिथ्या दर्शनते तन धारे, भूजल पावक पोन ॥१॥ धारी काया काष्ठ कोरे दहन पचन के हेत। सूक्ष्म ओर थूल तन धारो, अजहू न करता चेत ॥२॥ -', विकल त्रय म भरमतारे, भयो असैनी अंग। सैनी है हिंसा में राची, पीलई मिथ्या भंग ॥३॥ सुर नर नारक जोंनि मेरे, इष्ट अनिष्ट संयोग। दर्शन ज्ञान चरण धर भाई, नैनानंद मनोग ॥४॥ ६७-राग वरवा-परस्त्री निषेध का पद। यह तो काली नागनी रे, जीया तजो पराई नार ॥ टेक ॥ नारा नहिं यह नागनी रे, यह है विष की बेल । नागिनी काट क्रोधसों रे, यह मारे हॅस खेल ॥१॥ ___ बातें करती और सोरे, मन में राखै और । वा कू मिले और चाहै, वा कुंतजि के और ॥२॥ नैन मिलाये मनकं बांधै अंग मिलाये कर्म। धोखा देकर दुःख में डारे, याहि न श्रावे शर्म ॥३॥ तीर्थकर से याकू त्यागैं, जो त्रिभुवन के राय । नैनानंद नरक की नगरी, सत गुरु दई बताय ॥ ४॥ ६८-राग विहाग तथा खम्माच खास । अरे जिया जीव दया से तिरंगा, दया विन धर धर जन्म मरैगा 1 टेक ॥ पर सिर काट शीस निज चाहत रे शठ तापत
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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