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________________ [ ४४ ] निरफल, ज्ञान बिना जिय ज्योतीरे || ३ || छाया हीन तरोवर को छवि, नैनानंद नहिं होतीरे ॥ ४ ॥ ६४ - राग देश | अरुब्रह्मकूं जाना नहीं ॥ टेक ॥ अनुभावकूं ठाना नहीं । मुक्तिकी आशा लगी, घर छोड़ के जोगी हुवा, जिन धर्मकूं अपना सगा अज्ञान ते माना नहीं ॥ १ ॥ जाहिर में तू त्यागी हुवा, वातिन तेरा छाना नहीं । ऐ यार अपनी भूल में, विषबेल फल खाना नहीं ॥ २ ॥ संसार कू त्यागे बिना, निर्वाण पद पाना नहीं । संतोष बिन अब नैनसुख, तुमकू मज़ा आना नहीं ॥ ३ ॥ ६५ - राग सारङ्ग । न कर करम की तू आसरे, अरेजिया न कर करमकी तृ आसरे ॥ टेक ॥ अंतराय भई प्रथम जिनेश्वर, जाके सुग्पति दासरे । दरव क्षेत्र अरुकाल भाव लखि, तजि विधि को विसवासरे ॥ १ ॥ छहो खंडको नाथ भरथ नृप, मान गलत भयो तासरे । सीता सती इंद्र करि पूजित भयो बिजन बन वासरे ॥ २ खगचर वंश तिलक नृप रावण, करमनतै भयो नाशरे । तीर्थंकरकूं होत परिषद, करम बड़े दुख वासरे ॥ ३ ॥ पीवत खासरे । आशा करत करम सरसावत, ज्यों पय नैन सुख्य चिरकाल भयो अब काढ़ो गलकी फांसरे ॥ ४ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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