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________________ [३०] मुनिवर घग्म और गृहवानी दोन गनि जिनेश प्रजाशी। सुनत कटी ममता की बांसी तृष्णा डायन आप मनी ॥ ३ ॥ तुम दाना तुम ब्रा, महेशा तुमही धनत्तर वद्य जिनशा । काटो नबनानन्द चलेगा, तुम ईश्वर तुम गम हरी ॥४॥ ६२---गगनी जंगला-ठुमरी। मिटाटो प्रभु व्यथा हमारी जी एजो हम आये हैं दर्शन काज ॥ टेक ॥ सेठ दर्शन को प्रण गखो शली संज समान । अगनिले सीता उवारी जी॥१॥ नाग नागनी जगत उचारे, दियो मन्त्र नकार । मग्न गति उनकी सुधारी जी ॥ २॥ त्रिभुवननाथ सुनो जस तेरी जब आयो तुम पास । कगना प्रभु मेरी गुजाराजी ॥ ३॥ मरकत भटकत दर्शन पायो जनम सफल भयो आज । लती जो मैन मुद्रा तुम्हारी जी ॥ ४ ॥ मैं चाहत तुम चरण शरण गत मांगत हूँ नाज लाज । सुपोजी नैनानन्द की पुकारी जी ॥ ॥ ६३-गगनी भैरूंनर-जंगला संझौटीका जिला जबसे तेरा मत जाना, तभी ले आपा पिछाना ।। टैक।। निज पर भेद विज्ञान प्रकाशो, तव प्रकाशे नाना । दर्शन मानचरित्र आगधो. धरी जैन मनवाना ॥ १ ॥ काल अनादि भजो यिथ्यामत धर्म मर्म अव जाना । अब इट्टी ममता की फासी, समता ओर लुभाना ॥२॥ अब ही मैं यह वात पिछानी, यह भव बन्दीखाना। करम वन्य जग में दुख पाऊं. में त्रिभुवन को राना ॥३॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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