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________________ ( २० ) धारा निज धर्मकी कहानी ।। सांची० ॥ टेक ॥जामें अति ही विमल अगाध ज्ञान पानी, जहां नहीं संभयादि पंककी निशानो ॥ सांची ॥१॥ सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी, संतचित्त भरावृन्द रमैं नित्य ज्ञानी ।। सांचो ॥२॥ जाके अवगाहनतें शुद्ध होय प्रानी, भागचन्द्र निह घटमाहिं या प्रमानी। सांची० ॥३॥ ४१ राग-प्रभाती। ___ प्रभु तुम सूरत दृगसों निरखै हरखै मोरो जीयरा ॥ प्रभु तुम० । टेक ॥ सुजत कषायानल पुनि उपजे, ज्ञानसुधारस सीयरा ॥ प्रभु तुम ॥१॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसै नीयरा ॥ प्रभु तुम ॥२॥ भागचन्द तुम चरन कमलमें, वसत सन्तजन हीयरा ॥ प्रभु ॥३॥ ४२ राग-प्रभाती। अरे हो जियरा धर्ममें चित्त लगाय रे ॥ अरे हो० ॥टेका विषय विषसम जान भौ वृथा क्यों तूलुभाय रे । अरे हो॥१॥ संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहिं भाय रे । रोग-उरग-निवास वामी कहा नहिं यह काय रे ॥ अरे हो ॥२॥ काल हरिकी
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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