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________________ ५२ बुधजन विलास (६५) राग - सोरठ । ज्ञानी थारी रीतिरौ अचंभा मोनें वे है ज्ञानी० ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज परवश है क्यौं, जनम जनम दुख पावै छै ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद माया करि करि, आप आप फँसा छै । फल भोगन की बेर होय तब, भोगत क्यौं पिछतावे है || ज्ञानी० ॥ २ ॥ पाप काज करि धनको चाहै. धर्म विषमें बतावै है । बुध1 जन नीति अनीति बताई, सांचौ सौ बतरावै वै ॥ ज्ञानी• ॥ ३ ॥ (१६) अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ॥ ० ॥ टेक ॥। आरस सोच कानि कुल हरिके, धरि धीरज वरजोरी | सजनी० १ बुरी कुमतिकी बातनबू, चितवत है मोओोरी वा गुरुजनकी बलि बलि जाऊं, दूरि करी मति भोरी || सजनी ० ||२|| निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरूं निजरंग रोरी । निज ल्यौं ल्याय
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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