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________________ ( ८ ) करि विवेक उर धारि परीक्षा, भेद-विज्ञान विचारना । बुधजन तनतें ममत मेटना, चिदानंद पद धारना ॥ तन० ॥३॥ १५ रोग-सारंग लूहरी । तेरो करि लै काज बखत फिरना ॥ तेरो० ॥ टेक ॥ नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना । तेरो० ॥१॥ आन अचानक कंठ दबैंगे, तब तोकौं नाही शरना। यातें विलायन न ल्याय बाबरे, अब ही कर जो करना तेरो० ॥२॥ सब जीवनकी दया धार उर दान सुपात्रनि कर धरना जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति, बुधजन संवर आचरना ॥ तेरो० ॥३॥ १६ राग-लूहरी मीणांकी चालमें । अहो ! देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली __ या विराजै हो-मली या विराजै हो ॥ अहो । टेक ॥ सुर नर मुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ॥ अहो ॥ १॥ परिग्रहरहित प्रातिहारजुत, जगनायकता छाजै हो। दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि सुखनै गाजै हो । अहो देखो ॥२॥ चितमैं चितवत ही छिनमाही,
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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