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________________ ( २९ ) अर्थ - सामायिक अर्थात रागद्वेष को त्याग कर ग्रहारम्भ सम्बन्धी सर्व प्रकार को पापक्रिया से निवृत्त होकर एकान्त स्थान में बैठकर अपने आत्मीक स्वरूप का चितवन करना, वा पञ्चपरमेष्टी की भक्ति का पाठ पढ़ना उनकी बन्दना करना यह प्रथम शिक्षात्रत है प्राषधोपवास अर्थात अष्टमी चतुर्दशी के दिन चार प्रकार के आहार का छोडना अथवा जलमात्र ही ग्रहण करना वा अन्न को एकवार ग्रहण करना यह उत्तम, मध्यम, जघन्य भेवाला दूसरा शिक्षाव्रत है अतिथि पूजा अर्थात मुनि या उत्तम श्रावकों को नवधा भक्ति कर आहार देना यह तीसरा शिक्षाव्रत है । अन्त मंलेखना अर्थात मरण समय समाधि मरण करना यह चौथा शिक्षात्रत हैं । इस प्रकार यह चार शिक्षावत हैं । एवं सावय धम्मं संजम चरणं उदेसियं सयलं । मुद्धं संजम चरणं जइ धम्मं निक्कलं वोच्छे ||२७| एवं श्रावक धर्मम् संयम चरणम् उपदेशितम् । शुद्धं संयम चरणं यतिधर्मं निष्कलं वक्ष्ये || अर्थ - इस प्रकार श्रावक धर्म सम्बन्धी संयमाचरण का उपदेश किया अवशुद्ध संयमाचरण का वर्णन करता हूं जोकि यतीश्वरों का धर्म है और पूर्णरूप है । अर्थात जो सकल चारित्र है । पंचिंदिय संवरणं पंचवया पंचविंश किरियासु । पंचसमिदितियत्ति संजम चरणं निरायारं ||२८|| पञ्चेन्द्रिय संवरणं पञ्चत्रता पञ्चविंशति क्रियासु । पञ्चसमितयः तिखो गुप्तयः संयम चरणं निरागारम् ॥ अर्थ - पांचो इन्द्रियों को संबर अर्थात वश करना पांच महा व्रत जोकि पचसि क्रियाओं के होते होए ही होते हैं, पांच समिति और तीन गुप्ति, यह अनागरों का संयमा चरण है अर्थात मुनिधर्म है । अमणुण्णेय मणुण्णो सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । न करेय राग दो से पंचिंदिय संवरो भणिओ ||२९||
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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