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________________ ( २१ ) ३ चारित्र पाहुड़ । सव्वण्ह सव्वदसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी । वन्दि तु तिजगवन्दा अरहंता भव्य जीवेहिं ॥ १ ॥ गाणं दंसण सम्मं चारित्रं सेो हि कारणं ते सिं । मुक्खा राहण हेउ चारित्रं पहुडं वोच्छे || २ || सर्वज्ञान सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिजगद्दन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥ ज्ञान दर्शन सम्यक् चरित्रं स्वं हि कारणं तेषाम् । मोक्षा राधन हेतु चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥ अर्थ - सर्वज्ञ सर्वदर्शी निर्माही वीतराग परमेष्ठी तीन जगत के प्राणियों का वन्दनीय और भव्य जीवों का मान्य ऐसे अरिहंत देव को वन्दना करके चारित्र पाहुड़ को कहता हूं ॥ कैसा है वह चारित्र ! आत्मीक स्वभाव जो सम्यगदर्शन सम्यगशान और सम्यक् चारित्र उनके प्रकट करने का कारण और मोक्ष के आराधन करने का साक्षात हेतु है । जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारितं ॥ ३ ॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् मवति चरित्रम् ॥ अर्थ – जो जाने सो शान और जो ( सामान्यपने ) देखे सो दर्शन ऐसा कहा है || ज्ञान और दर्शन इन दोनों के समायोग होने से चारित्र होता है । एए ति एंहविभागा हवन्ति जीवस्स अक्खयामेया । तिणापि सोहणत्थे जिण भणियं दुविह चारितं ॥ ४ ॥ एते त्रयोपि भावा भवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः । त्रयाणामपि शोधनार्थ जिन मणितं द्विविध चरित्रम् ॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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