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________________ ( २० ) भावार्थ-स्त्री को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सक्ती हैचित्ता सोहणतोस टिल्लं भाव तदा सहावेण । विजदि मासा तेसिं इच्छीसुण संकया झाणं ॥२६॥ चित्ताऽऽशोधः न वेसाम् शिथलो भावः तदा स्वभावेन । विद्यते मास तेसाम् स्त्रीषु न अशंकया ध्यानम् ॥ अर्थ-स्त्रियों के चित्त में शुद्धता नहीं है अर्थात् उनके भाव कुटिल होते हैं और स्वभाव से ही उनके शिथल परिणाम होते हैं तथा उनके प्रतिमास मामिक धर्म ( रुधिर श्राव ) होता रहता है इसी से स्त्रियों में निःशंक ध्यान नहीं हो सक्ता और जब निश्शङ्क ध्यान ही नहीं तब मोक्ष कैसे हो सकै गाहेण अप्पगाहा समुद्द सलिले सचेल अच्छेण । इच्छा जाहु नियत्ता ताई णियताइ सच दुःखाइ ॥२७॥ ग्राह्यण अल्प ग्राही समुद्र सलिले स्वचेल वस्त्रण। इच्छा येभ्यो निवृत्ता ताभ्यः मिवृत्तानि सर्वदुःखानि ।। अर्थ-जैसे कि कोई पुरुष समुद्र में भरे हुवे बहुत जल में से अपना वस्त्र धोने के वास्ते उतनाही जल ग्रहण करे जितना उमक कपड़ा धोने के वास्ते जरूरी हो इसही प्रकार जो मुनि ग्रहण करने योग्य आहार आदिक को भी थोड़ा ही ग्रहण करते हैं अर्थात् आहार आदिक उतनाही ग्रहण करते हैं जितना शरीर की स्थिति के वास्ते जरूरी है और जिन की इच्छा निवृत्त हो गई है उनसे सर्व दुख भी दूर हो गए हैं। इति सूत्र प्राभृतम् ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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