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________________ ( १०९ ) अर्थ-- योगी जिस परमात्मा को जानकर और उस परमतत्व को निरन्तर ध्यान में लाकर निर्वाध अनन्त और अनुपम ऐसे निर्वाण (मोक्ष) को पाते है । अर्थात् उस परमात्म ध्यान से मुक्ति होती है। ति पगारो सों अप्पा परमन्तर बाहिरोहु देहीणं । सच्छपरो माइज्जा अन्तोवारण चयहि वहिरप्पा ॥४॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तरबहिः स्फुटं देहीनाम् । तत्र परं ध्यायस्व अन्तरुपायेन त्यज वहिरात्मनन् ।। अर्थ-- आत्मा तीन प्रकार है परमात्मा १ अन्तरात्मा २ । और बहिरात्मा ३ । तिन में से अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा को ध्यावो और वहिरात्मा को छोड़ो। अक्खाणि पहिरप्पा अन्तर अप्पाहु अप्पसङ्कप्पो । कम्पकलङ्कविमुको परमप्पा भण्णए देवो ॥५॥ अक्षाणि वहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसङ्कल्पः । कर्मकलङ्कविमुक्तः परमात्माभण्यते देवः ॥ अर्थ-आंख नाक आदि इन्द्रियां वहिरात्मा हैं अर्थात् इन्द्रियों को ही आत्मा मानने वाला वहिरात्मा है, आत्मसकल्प अर्थात् भेदशान अन्तरात्मा है। भावार्थ-जो आत्मा को शरीर से भिन्न मानता है वह अन्तरात्मा है, और जो कर्मरूपी कलङ्क से रहित है वह परमात्मा है, वही देव है। मळरहिओ कलचत्तो अणिन्दओ केवलोविमुद्धप्पा । परमेहीपरममिणो सिवको सासओ सिद्धो ॥६॥ मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलोविशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवङ्करः शास्वतः सिद्धः ।
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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