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________________ ( १०८ ) अर्थ-इस प्रकार यह भाव प्राभृत श्रीसर्वशंदवने सम्यक्प्रकार उपदेशा है तिसको जो भव्य जीव पड़े हैं सुने हैं भावना कर हैं वह मबिचल स्थान अर्थात् [ मोक्ष स्थान ] को पावे हैं। छटा पाहुड़। मोक्षप्राभृतम् । णाणमयं अप्पाणं उपळद्धं जेण झाडिय कम्मेण । चाऊणय परदव्वं णमोणपो तस्स देबस्स ॥ १ ॥ ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमोनमस्तस्मै देवाय ॥ अर्थ-क्षय कर दिये हैं द्रव्यकर्म भावकर्म और नो कर्म जिस ने ऐसा जो आत्मा परद्रव्यों को छोड़कर ज्ञानमय आत्मस्वरूप को प्राप्त हुआ है तिस आत्मस्वरूप देव का मरा नमस्कार हावा। णमिऊण य तं देवं अणन्तं धरणाण दंसणं सुदं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयंपरम जोईणं ॥ २ ॥ नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् । वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ अर्थ-अनन्त और उत्तम है शानदर्शन जिनमें, शुद्ध परमात्मस्वरूप और उत्कृष्ट है पद जिनका ऐसे देव को नमस्कार करके परमयोगियों के प्रति शुद्ध अनन्तदर्शन शानस्वरूप और उत्कृष्ट पदधारी ध्येयरूप परमात्मा का वर्णन करूंगा। नं जाणऊण जोई जो अच्छो जोइऊणअणबरयं । अन्वावाहमणंत अणोवर्म हवइ णिव्याणं ॥३॥ यद् ज्ञात्वा योगी यमर्थ युक्त्वाऽनवरतम् । अन्याबाधमनन्तम् अनुपमं भवति निर्वाणम् ॥
SR No.010453
Book TitleShat Pahuda Grantha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
PublisherJain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publication Year
Total Pages149
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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