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________________ स्थाद्वादम. ॥४२॥ सामान्यविशेष है, इस प्रकार समास होनेसे सामान्यविशेष हो गया । जिस प्रकारसे महासामान्यकी अपेक्षासे द्रव्यत्व अपरसामान्य राजै.शा. के इसी प्रकारसे द्रव्यत्वकी अपेक्षासे पृथिवीत्व जो है, वह अपरसामान्य है और पृथिवीत्वकी अपेक्षासे घटत्व अपरसामान्य है। सीरीतिसे गुणत्व जो है सो चौवीसों गुणोंमें रहनेसे सामान्य है और यही गुणत्व द्रव्योंसे तथा कर्मोंसे रहित होनेके कारण विशेष भी है। इसी प्रकार गुणत्वकी अपेक्षासे रूपत्वादिक अपरसामान्य है और रूपत्वादिकी अपेक्षासे नीलत्वादि अपर सामान्य है। एवमेव कर्मत्व जो है, वह उत्क्षेपणादि पांचों कौमें रहता है । इसकारण सामान्य है और यही कर्मत्व द्रव्यों तथा गुणोंसे रहित होनेसे विशेष है । तथा जैसे द्रव्यत्वकी अपेक्षासे पृथिवीत्व अपरसामान्य है, उसीप्रकार यहां भी कर्मत्वकी अपेक्षासे उत्क्षेपणत्व आदिको अपरसामान्य समझ लेना चाहिये। V तत्र सत्ता द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं कया युक्त्येति चेत्-उच्यते। न द्रव्यं सत्ता द्रव्यादन्येत्यर्थः। एकद्रव्यवतत्त्वादेकैकस्मिन् द्रव्ये वर्तमानत्वादित्यर्थः । द्रव्यत्ववत् । यथा द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु प्रत्येकं वर्तमानं द्रव्यं न भवति । किन्तु सामान्यविशेषलक्षणं द्रव्यत्वमेव । एवं सत्तापि । वैशेषिकाणां हि अद्रव्यं वा द्रव्यम् । अनेकद्रव्यं वा द्रव्यम् । तत्राऽद्रव्यमाकाशः कालो दिगात्मामनःपरमाणवः। अनेकद्रव्यं तु यणुकादिस्कन्धाः । एकद्रव्यं तु द्रव्यमेव न भवति । एकद्रव्यवती च सत्ता । इति द्रव्यलक्षणविलक्षणत्वान्न द्रव्यम् । एवं न गुणः सत्ता । गुणेषु । भावाद् गुणत्ववत्। यदि हि सत्ता गुणः स्यान्न तर्हि गुणेषु वर्तेत । निर्गुणत्वाद् गुणानाम् । वर्तते च गुणेषु सत्ता। सन् गुण इति प्रतीतेः। तथा न सत्ता कर्म । कर्मसु भावात्कर्मत्ववत् । यदि च सत्ता कर्म स्यान्न तर्हि कर्मसु वर्तेत । निष्कर्मत्वात्कर्मणां । वर्तते च कर्मसु भावः । सत् कर्मेति प्रतीतेः। तस्मात्पदार्थान्तरं सत्ता। यदि प्रश्न करो कि, सत्ता ( सामान्य ) जो है, वह द्रव्य, गुण तथा कर्मसे भिन्न पदार्थ किस युक्तिसे है ? तो उत्तर यह है कि, सत्ता द्वन्य नहीं है अर्थात् द्रव्यसे भिन्न है । क्योंकि एकद्रव्यवाली है अर्थात् एक एक द्रव्यके प्रति रहती है। द्रव्यत्वके 5 समान अर्थात् 'जैसे द्रव्यत्व नौ ९ द्रव्यों से प्रत्येक द्रव्यमें रहता है, इस कारण द्रव्य नहीं है। किन्तु सामान्यविशेषरूप लक्षणका ४२॥ १. व्यं द्विधा-अद्वण्य अनेकदव्यं च । न विद्यते द्रव्यं जन्यतया जनकतया च यस्य तदगम्यं दम्यम् । २. अनेक द्रव्यं जन्यतया जनकतया Mच यस्य तदनेकद्व्यं द्रव्यम् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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