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________________ ( नीचा फैकना) २ आकुंचन ( सिकुचाना ) ३ प्रसारण (फैलाना ) ४ और गमन ५ ऐसे पांच कर्म है । इनमें गमनका all ग्रहण करनेसे भ्रमण, रेचन, स्पंदन आदिसे विरोध नहीं है। ___ अत्यन्तव्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारणादन्योऽन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सामान्यम् । लातच द्विविधं परमपरं च । तत्र परं सत्ताभावो महासामान्यमिति चोच्यते । द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्याऽपेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि । एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते । तथाहि-द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु वर्तमानत्वात्सामान्यम् । गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तत्वाद्विशेषः । ततः कर्मधारये सामान्यविशेष इति । एवं द्रव्यत्वापेक्षया पृथिवीत्वादिकमपरं तदपेक्षया घटत्वादिकम् । एवं चतुर्विंशतौ गुणेषु वृत्तेर्गुणत्वं सामान्यम् ।। द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृत्तेश्च विशेषः । एवं गुणत्वापेक्षया रूपत्वादिकं तदपेक्षया नीलत्वादिकम् । एवं पञ्चसु कर्मसुन वर्त्तनात्कर्मत्वं सामान्यम् । द्रव्यगुणेभ्यो व्यावृत्तत्वाद्विशेषः । एवं कर्मत्वापेक्षया उत्क्षेपणत्वादिकं ज्ञेयम् । NI अत्यन्त व्यावृत्त ( भिन्न ) ऐसे पदार्थोंका जिस कारणसे परस्पर खरूपका अनुगम जाना जाता है, वह अनुवृत्तिप्रत्ययका कारण सामान्य है । अर्थात् परस्पर भिन्न पदार्थोंमें समान अंशको ग्रहण करके उनके एकताको करनेवाला है, वह सामान्य है । वह दो प्रकारका है। एक तो परसामान्य और दूसरा अपरसामान्य । इनमें जो परसामान्य है, वह सत्ताभाव तथा महासामान्य भी कहलाता है । क्योंकि यह परसामान्य द्रव्यत्वादिके अन्तर्गत जो सामान्य अर्थात् द्रव्यत्व द्रव्यमें ही रहता है और यह परसामान्य द्रव्य, गुण और कर्म, इन तीनोंमें रहता है। अतः महाविषयका || धारक है । द्रव्यत्व आदि जो है, वह अपरसामान्य है । इस अपरसामान्यको सामान्यविशेष इस प्रकार भी कहते है अर्थात || सामान्यविशेष यह भी इस अपरसामान्यका ही नाम है । सो ही दिखलाते हैं. अर्थात् इस अपरसामान्यको सामान्यविशेष क्यों IN कहते हैं, इस विषयको निम्नलिखित प्रकारसे स्पष्ट करते है-द्रव्यत्व जो है, वह पृथिवी आदि नवों ही द्रव्योंमें रहता है, इस al कारणसे तो सामान्य है । और यह द्रव्यत्व-गुण तथा कर्मोंसे व्यावृत्त ( रहित ) है, अतःकृत्वा विशेष है। और जब द्रव्यत्व एक अपेक्षासे सामान्य हुआ तथा दूसरी अपेक्षासे विशेष हुवा तव कर्मधारयसमासमें सामान्य जो हो, और विशेष जो हो, वह १ द्रव्यादित्रिकवृत्तिस्तु सत्ता परतयोच्यते ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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