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________________ स्याद्वादमं. ॥ ३३ ॥ वचन कह दिया जावे तो, वह धर्मनाशक नही है २, विवाह के अवसर में वरकन्याके दोषोंको न कहकर उनके झूठे ही गुणको कह दिये जाने में जो असत्यवचन बोला जाता है, वह भी धर्मनाशक नहीं है ३, अपने वा परके प्राण जाते समय प्राणोंकी रक्षार्थ यदि असत्यवचन कहा जावे, तो वह धर्मनाशक नही है ४, और जब राजा सर्व धनको लूटता होवे, उस समय अपने धनको किसी | दूसरेका बतलाकर धनकी रक्षा करनेमें जो असत्य वचन कहा जावे तो, वह भी धर्मनाशक नही है ५, इस प्रकार पाच प्रकारके झूठ पापरूप नहीं है । १ । " तथा " परद्रव्याणि लोष्टवत्" इत्यादिना अदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तं " यद्यपि ब्राह्मणो हटेन | परकीयमादत्ते छलेन वा, तथापि तस्य नाऽदत्तादानम् । यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तम् । ब्राह्मणानां तु दौर्ब| ल्याद्वृषलाः परिभुञ्जते । तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादत्ते स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददातीति । तथा|" अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ” इति लपित्वा " अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणां । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् । १ । ” इत्यादि । कियन्तो वा दधिमापभोजनात्कृपणा विवेच्यन्ते । तदेवमागमोऽपि न तस्य सर्वज्ञतां वक्ति । किञ्च सर्वज्ञः सन्नसौ चराचरं चेद्विरचयति तदा जगदुपप्लव करण स्वैरिणः पश्चादपि कर्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिण, एतदधिक्षेपकारिणश्चास्मदादीन् किमर्थं सृजति । इति तन्नाऽयं सर्वज्ञः । तथा “परके द्रव्योंको लोष्टके समान देखने चाहियें अर्थात् दूसरोंके धनको लोहके समान अल्पमूल्यवाला समझकर न लेना चाहिये " इस वचनसे नही दिये हुए द्रव्यके ग्रहणका अर्थात् चोरी करनेका निषेध करके फिर कहा है कि, यदि ब्राह्मण हठसे अथवा अपने बलसे परके धनको लेवे, तौ भी उस ब्राह्मणके अदत्तादान अर्थात् चोरी करनेका दोष नही है । क्योकि “ ब्रह्माने सर्व जगतकी संपदा ब्राह्मणों को दी है, उन ब्राह्मणों में जो दुर्बलता हो गई इस कारणसे वृषल ( शूद्र ) उन संपदाओंका भोग करते हैं, अतः दूसरे पुरुषसे कोई भी पदार्थ छीनता हुआ ब्राह्मण अपना ही लेता है, अपना ही भक्षण करता है, अपना ही पहरता है और अपना ही देता है ।" इसी प्रकार " पुत्ररहितकी गति नही है " ऐसा कहकर फिर उसी शास्त्रमें लिखा कि, " कितने ही हजार बालब्रह्मचारी ब्राह्मण कुलकी सततिको न करके अर्थात् कुलकी रक्षार्थ संतान ( पुत्र ) उत्पन्न न करके १ आच्छादयतीत्यर्थः । रा. जै.शा. ॥ ३३ ॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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