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________________ करनेके लिये चौथा ईश्वर मानना पडेगा और ऐसा माननेपर अनवस्था दोष होगा । यदि कहो कि, वह आगमका कर्त्ता अन्यपुरुप असर्वज्ञ है तो उस असर्वज्ञ पुरुषके वचनमें विश्वास ही क्या है अर्थात् असर्वज्ञके वचनमें हम विश्वास नही करते है । ८ सप्त ," तथा अपरं च भवदभीष्ट आगमः प्रत्युत तत्प्रणेतुरसर्वज्ञत्वमेव साधयति । पूर्वाऽपरविरुद्धाऽर्थवचनोपेतत्वात् तथाहि — “ न हिंस्यात्सर्वभूतानि ” इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तत्रैव पठितम् “ षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां | मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः । " अग्नीषोमीयं पशुमालभेत | दशप्राजापत्यान् पशूनालभेत ” इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते । तथा " नानृतं ब्रूया - त्" इत्यादिनाऽनृतभाषणं प्रथमं निषिध्य पश्चाद् “ ब्राह्मणार्थेऽनृतं ब्रूयादित्यादि ” तथा “ न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चाऽनृतान्याहुरपातकानि । १ । 35 और वह तुम्हारा माना हुआ आगम उस अपने रचनेवाले ईश्वरको सर्वज्ञ नही सिद्ध करता है, किन्तु उलटा ईश्वरको असर्वज्ञ ही सिद्ध करता है । क्योंकि तुम्हारा आगम पूर्व (आगे) तथा अपर (पीछे) में विरुद्ध अर्थोके धारक वचनों सहित है । भावार्थ| जिस आगमसे तुम ईश्वरको सर्वज्ञ सिद्ध करते हो, वह आगम पूर्वापरविरुद्धवचनोंका धारक है, अर्थात् पहले जो कहता है, उसके विरुद्ध आगें कह देता है, इसकारण अपने कर्त्ता ईश्वरको सर्वज्ञके बदले असर्वज्ञ ही सिद्ध करता है । सो ही दिखलाते हैं- “ सर्व प्रकारके जीवोंकी हिसा न करनी चाहिये” ऐसा पहिले कह कर फिर उसी तुम्हारे शास्त्रमें कहा है कि, "अश्वमेधके वचनसे मध्यम ( विचले ) दिवसमें तीन कम छः सौ अर्थात् पाचसौ सत्यानवें ५९७ पशुओंका वध किया जाता है । १ ।" इसीप्रकार " अग्निषोमीय अर्थात् अभि और चंद्र है देवता जिसका ऐसे पशुको मारना चाहिये । " तथा " प्रजापति है देवता जिनका ऐसे सतरह १७ पशुओंका वध करना चाहिये । " इनको आदि लेकर जो वचन है, वे पूर्वापरविरोधको कैसे नही धारण करते है ? अर्थात् पूर्वापरविरोधके धारक है ही । इसी प्रकार " झूठ नहीं बोलना चाहिये " इत्यादि वचनोंसे पहिले असत्यवचन | कहने का निषेध करके फिर “ ब्राह्मणके अर्थ झूठ बोलना चाहिये । " इत्यादि वचन कहे है । तथा " नर्म में अर्थात् हास्य ( मजाख अथवा ठठोल ) में यदि झूठ वचन कहा जावे तो, वह धर्मनाशक नही है, स्त्रियोंके साथ संभोग समयमें यदि असत्य१ भत्र सर्वत्र धर्ममित्यध्याहारः कर्तव्यः ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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