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________________ है, उसके पश्चात् तुमने कार्यत्वहेतुका कथन किया है । इसलिये पूर्वोक्तप्रकारसे तुम्हारे अनुमानका खंडन होजानेसे सिद्ध हुआ कि, जगतका कर्ता कोई भी नहीं है । और ईश्वरको जगतका कर्ता सिद्ध करनेके लिये दिये हुए जो एकत्व आदि ईश्वरके विशेषण है, वे तो नपुंसकके प्रति स्त्रियोंके रूप लावण्य आदिका कथन करनेके समान है। भावार्थ-जैसे नपुंसकके प्रति स्त्रियोंके रूपका वर्णन || करना व्यर्थ है, उसी प्रकार जगत्कर्तृत्वसे रहित उस ईश्वरके प्रति एकत्व आदि विशेषणोंका देना भी वृथा है । तथापि ' वे एकत्व IN आदि विशेषण विचारको नही सहते हैं; यही प्रकट करनेके लिये यहां पर कुछ कहते है। तत्रैकत्वचर्चस्तावत् । बहूनामेककार्यकरणे वैमत्यसम्भावनेति नायमेकान्तः। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि || शक्रमूर्द्धः, अनेकशिल्पिकल्पितत्वेऽपि प्रासादादीनां, नैकसरघानिर्वर्तितत्वेऽपि मधुच्छत्रादीनां चैकरूपताया अविगानेनोपलम्भात् । अथैतेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति ब्रूषे । एवं चद्भवतो भवानीपतिं प्रति निष्प्रतिमा वासना। तर्हि कुविन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटघटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते । अथ तेषां प्रत्यक्षसिद्धं कर्तृत्वं कथमपन्होतुं शक्यम् । तर्हि कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं यत्तेषामसदृशतादृशप्रयाससाध्यं कर्त्तत्वमे कहेलयैवापलप्यते । तस्माद्वैमत्यभयान्महेशितुरेकत्वकल्पना भोजनादिव्ययभयात्कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुत्रकलना| दिपरित्यजनेन शून्यारण्यानीसेवनमिव । ___ उन विशेषणोंमें प्रथम ही ईश्वरके एकत्वविशेषणके विषयमें चर्चा करतें हैं । वादियोंने जो कहा है कि, “बहुतसे ईश्वर मिल कर जो एक कार्य करै, तो उनके परस्पर संमतिमें भेद हो जावे ' सो यह एकान्त नहीं है अर्थात् मतिभेद होवे ही ऐसा निश्चय | KG नहीं है । क्योंकि, हम सैंकड़ों कीडियों ( चीटियों ) द्वारा रचे हुये भी विलको, बहुतसे शिल्पियों ( कारीगरों वा राजों ) द्वारा बनाये हुए भी महल आदि मकानोंको, और बहुतसी मक्षिकाओं ( मक्खियों) से निर्माण किये हुए सहतके छाते आदिको प्रशंसापूर्वक एकरूपके धारक देखते है । यदि इन विल आदिका भी एक ईश्वरको ही कर्ता कहो और ऐसी ही तुम्हारी ईश्वरके | प्रति अतुल्य भक्ति हो, तो कुविंद ( जुलाहा ) और कुंभकार आदिका तिरस्कार करके पट तथा घट आदिका कर्ता भी उस ईश्वरको क्यों नहीं मान लेते हो । भावार्थ-जैसे तुमने कीटिका आदि द्वारा रचे हुए विल आदिकोंका कर्ता ईश्वर माना है, उसी प्रकार जुलाहेसे बने हुए वस्त्रका और कुंभकार द्वारा रचे हुए घटका कर्त्ता भी उसी ईश्वरको मान लो । यदि कहो कि, MA -
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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